जंगे आजादी में अंग्रेजी हुकूमत ने फांसी की शुरुआत खुदीराम बोस से की थी और वह खीरी जिले के क्रांतिकारी राजनारायण मिश्र पर आकर रुकी। राजनारायण मिश्र आजादी के आंदोलन के आखिरी शहीद माने जाते हैं, जिनको 1944 में सर्दियों की सुबह लखनऊ सेंट्रल जेल में फांसी के फंदे पर लटका दिया गया।
सजा-ए-मौत…जिसका फरमान सुनकर किसी का भी कलेजा बैठ जाए लेकिन देश की खातिर हंसते-हंसते फंदा चूमने का जज्बा हो तो यह सजा भी तोहफा बन जाती है। कुछ ऐसा ही हुआ राजनारायण मिश्र के साथ। उनको फांसी के फंदे तक ले जाने से पहले जब वजन किया गया तो वह छह पौंड बढ़ चुका था। डॉक्टर व जेल के अधिकारी हैरान थे और राजनारायण मिश्र मुस्कुरा रहे थे।
भगत सिंह की फांसी ने बदल दिए विचार
खीरी जिले के भीखमपुर गांव के रहने वाले राज नारायण मिश्र ने आजादी के आंदोलन का रास्ता पकड़ा तो गांधी जी के विचारों को सुनकर था लेकिन 23 मार्च 1931 को भगत सिंह की फांसी के बाद तमाम नौजवानों का अंग्रेजी सरकार के प्रति रवैया ही बदल गया। आजादी के आंदोलन की राह पर निकले राजनारायण को लगने लगा कि अंग्रेजी हुकूमत आंदोलन और सत्याग्रह से मानने वाली नहीं है।
उसे भगत सिंह के रास्ते पर चलकर ही कोई सबक दिया जा सकता है। इसके बाद वह और उनके साथी सशस्त्र साम्राज्यवाद विरोधी प्रतिरोध की राह पर आ गए। शहीद राजनारायण मिश्र के जीवन पर लेखक सुधीर विद्यार्थी की किताब उनसे जुड़े कई राज खोलती है।